June 25, 2025
Bhinmal - Jalore (Raj)
अनोखा मेला

राजस्थान में रेबारीयों का अनोखा मेला

राजे-रजवाड़े का दौर तो खत्म हो गया। न राजा रहे और न ही उनका राजपाठ। लेकिन रजों-रजवाड़ों का खानदान आज भी शान से मौजूद है। राजस्थान के इकलौते हिल स्टेशन माउंटआबू से 70 किलोमीटर दूर सिरोही में एक सदियों से एक अद्भुत धार्मिक परंपरा आज भी चली आ रही है। जष्ठसुक्ला एकादशी अर्थात भगवान कृष्ण के जन्मोत्सव के दिन सिरोही राजपरिवार अपना राजपाठ दो दिन के लिए रेबारी यानी देवासी जाति के लोगों को सौंप देते हैं।

सिरोही सारणेश्वर मंदिर पर एक दिन के लिए रेबारी समुदाय का अधिपत्य को असाधारण वीतराग और श्रद्धा से भरी हुई है। बात है 1298 ईस्वी की, जब दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने सिरोही के सोलंकी राजवंश को नेस्तनाबूद करके वहाँ पर रूद्रावत मंदिर के शिवलिंग को खंडित किया। इसी गांव को तत्कालीन समय में लौटाया। हाथों के पंच में जंजीरों से कांधों पर खींचता हुआ दिल्ली की ओर बढ़ चला। सिरोही के एक बुजुर्ग रेबारी युवक वीरभद्र देवासी ने बढ़ते का सामना करते हुए और उस समय की उपस्थिति पर सही जानकारी महाराजा तक पहुंचाई तब सिरोही के महाराजा विजयराज को इसकी सूचना मिली।

उन्होने इस संबंध में एक पत्र अपने भाई जोधपुर के महाराज कान्हदेव व अपने संबंधी मेवाड़ के महाराणा रतनसिंह (महारानी पद्मिनी के पति) को पत्र लिखकर इस घटना के बारे में बताया। अलाउद्दीन खिलजी अपनी सेना के साथ सिरोही पहुँचाने पास तक पहुँचता तो महाराज विजयराज के आदेश के पूर्व में ही देवासी और रेबारी समाज के लोगों को सीमा रक्षा की मदद मिल गई थी। देवासी समाज ने अलाउद्दीन खिलजी को पराजित कर के दीपावली के दिन शुक्रवार कुछ ही समय इस्लामिक सल्तनत की स्थापना को इस युद्ध से तत्काल चली गई। उस मुस्लिम को जबरदस्त पराजित किया गया। इसलिए इस मंदिर का नाम धरणेश्वर महादेव रखा जो बाद में अपरिवर्तित होकर सारणेश्वर के रूप में विख्यात हुआ। अपनी हार से बौखलाए अलाउद्दीन ने देस महलों को जलाया। सन 1299 में फिर से सिरोही पर आक्रमण कर लेकिन महाराज का सिर कलम करने और मंदिर को नुकसान पहुंचाने का प्रण लेकर आया।

तब सिरोही की प्रजा ने जब महाराज के साथ देकर फतहगढ़ के निवासियों को बचाने की प्रार्थना की और आक्रमक और लुटेरों के खिलाफ श्रीरामजी से प्रेरित होकर गोपालक पुत्र के रूप में वीरभद्र देवासी ने अपने साथियों के साथ युद्ध में भाग लिया और उसे खदेड़ दिया। उस समय शाही सेना इतनी अधिक मात्रा में नहीं थी कि वो तीर और तलवारों से दिल्ली सल्तनत की सभी गाड़ियों को मुकाबला नहीं कर पाई। देवासी ने बताया कि युद्ध समाप्त के कुछ दूरी पर रेबारी समाज के शिविर में खिलजी की कोई भी गतिविधि नहीं पाई। भारत की इस भूमि पर एक बार फिर से मुस्लिम सल्तनत के पैर जमने से पहले ही सीमा पर संग्राम हुआ और सिरोही की रेबारी और देवासी प्रजा की हिम्मत व बलिदान ने दुश्मनों के पैर रोक दिए।

फिर परंपरा के अनुसार प्रतीकात्मक तौर पर सिरोही महाराज को अपना राजपाठ सौंपते हैं। सिरोही महाराज ने सम्मानपूर्वक एक पत्र लिखा सारणेश्वर मंदिर पर ठीक तरह से रेबारी समुदाय को सौंप दिया। यह सिरोही राज्य का सिर नहीं, बल्कि वह भी अपनी पारंपरिक पोशाक में ही आते हैं। वे कोई अधिकारी या कलेक्टर या मुख्य मंत्री की उस दिन में आने तो उसे भी रेबारी पोशाक पहनना पड़ता है। अन्यथा वे भी नहीं आ सकते।

लाल पगड़ी और सफेद पोशाक में रेबारी देवासी

समाज के लिए सिरोही परंपरा के मुताबिक सिरोही के राजा वे दो दिनों का राजपाठ सौंप दिया जाता है। लालों देवासी भाई, जो इस अनूठी परंपरा का निर्वाह के लिए देसभर से यहाँ पहुँचते हैं।

महिलाएं और पुरुषगण पहले से वेशभूषा अपनाकर मंदिरों में देवासी देते हैं। स्त्रियां सुंदर वस्त्रों मिर्जा पहनती हैं, माउंटआबू के करीब सिरोही राजपरिवार के स्वागत स्थल है। यहां इतनी बड़ी संख्या में नहीं लेकिन सदियों से चल रही परंपरा के भौगोलिक तौर पर सिरोही के पास ही रेगिस्तानी क्षेत्र में नज़दीक है। एक साल में सिर्फ एक बार ही होता है कि देवासी समुदाय की दो दिनों के लिए पगड़ी में इतनी बड़ी संख्या में यहाँ इकट्ठा होते हैं।

तभी से उन्हें जलसप्तमी त्यौहार के दिन जो भगवान कृष्ण के जलवाओं का दिन कहा जाता है, राजपाठ सौंप दिया जाता है। इस दिन सिरोही राजघराने से जुड़े सभी लोग महल छोड़कर कहीं और रहते हैं। वे दिन बीत जाने के बाद ही वो महल में आते हैं। इस दौरान पूरा राजपाठ देवासी जाति के कब्जे में रहता है और संचालन वहीं करते हैं।

उन्हें राजशाही पगड़ी भी सौंपी जाती है। राजमहल में उनका तिलक किया जाता है। सिरोही के कलेक्टर दूसरे दिन पूरे सिरोही में छुट्टी का ऐलान करते हैं। इस दिन माउंटआबू सहित पूरा सिरोही बंद रहता है। दो दिनों तक राजपाठ चलाने के बाद देवासी लोग राजघराना सिरोही के वंशजों को सौंप देते हैं।

ऐसा राजसी रीति रिवाजों का मेला जीवन में एक बार जरूर देखने लायक है। तब से यह परंपरा निरंतर निभाई जा रही है।