June 25, 2025
Bhinmal - Jalore (Raj)
इतिहास

इतिहास किसी भी देश और जाति के उत्थान की कुंजी है।

किसी भी देश तथा समाज के उत्थान व पतन तथा वहाँ के ज्ञान-विज्ञान, कला-साहित्य, एवं संस्कृति का ज्ञान हमें इतिहास के द्वारा ही मिल सकता है।
हमें अपने पूर्वजों के क्रियाकलापों की जानकारी इतिहास के माध्यम से ही मिल पाती है। जिस जाति या समाज को अपने इतिहास का बोध नहीं होता, वह कभी भी प्रगति के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ सकता।

कोई भी व्यक्ति या समाज इतिहास की जानकारी नहीं होने पर अपनी त्रुटियों को भी नहीं पहचान सकता।
इतिहास से ही हमें अपने पूर्वजों के अनुभवों का ज्ञान प्राप्त होता है। इतिहास एक पवित्र ग्रंथ है जो जाति को अंधकार से निकाल कर प्रकाश में ले आता है।
इतिहास हमें अतीत से पुलकित करने के साथ-साथ गर्व का श्रेष्ठ प्रमाणित करके हमें गौरव महसूस कराता है और उसके बिना इतिहास में बढ़कर कोई आधार नहीं हो सकता।

किसी जाति की प्रतिष्ठा रखने तथा विकास के पथ पर आगे बढ़ने के लिए इतिहास से अधिक प्रेरणा प्राप्त स्रोत कोई नहीं हो सकता।
इसलिए "देवासी समाज दर्शन" के माध्यम से हमारा यह महत्त्वपूर्ण उद्देश्य रहेगा कि हम समाज को उनके श्रेष्ठ इतिहास से जोड़ें और उन्हें बताएं कि उनका गौरवशाली अतीत कैसा रहा है।

इतिहास में किसी भी देश या जाति का उत्थान और पतन देखा जा सकता है। उस जाति को इतिहास में उज्जवल स्थान प्राप्त होता है जो यदि किसी देश या समाज के लिए संघर्ष करती है।
तो उसका इतिहास गौरवशाली बनता है। यदि कोई समाज अपने स्वाभिमान, अस्तित्व, संस्कृति की रक्षा के लिए बलिदान देता है, वह भटक सकता है परंतु मिटता नहीं। यही भारत में आज तमाम भी चार बडी़ जातियाँ रह गईं।

पिछड़ी हुई जातियों का इतिहास निरन्तर गौरवशाली रहा है। जीवित ने जिनको कबाड़ कर पिछड़ी हुई जातियों में मानकर रखा, स्वाभिमान एवं प्रतिष्ठा समाप्त कर दी।
किन्तु यदि हम गौर से देखें तो हमें ज्ञात होगा कि इतिहास में जिन जातियों ने वीरता, कला, साहित्य रचना का संचालन एवं उन लोगों में भी विशेष योगदान दिया जिनकी भूमिका समाज के उत्थान में उल्लेखनीय रही, वह समाज पिछड़ा कैसे हो सकता है?

हम इतिहास को देखते हुए समाजों को नामवाली तथा गैर-नामवाली जातियों के रूप में जानते हैं। जिन लोगों पर पवित्रता का ठप्पा लगाया गया और जिन पर कलंक का, वह जातियाँ ही आज उच्च और निम्न मानी जाती हैं।

"देवासी समाज दर्शन" के माध्यम से हम यह बताना चाहते हैं कि जाति और वर्ग भेद को समाप्त कर एक समरसतापूर्ण समाज स्थापना की ओर बढ़ना चाहिए।

भारतीय समाज को चार वर्णों में विभक्त किया गया था - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।

वे वेदों में वर्णित गुण एवं कर्तव्यों के आधार पर विभाजित किए गए थे।
चार वर्ण चार प्रकार हैं:
ब्राह्मण - ज्ञान व शिक्षा,
क्षत्रिय - रक्षा,
वैश्य - वाणिज्य,
शूद्र - सेवा।

और इस विघटन का मुख्य उद्देश्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को कर्म के नीचे बाँध कर समाज को श्रेष्ठ बनाना था।

रबारी जाति का परिचय

  • राईका कौन था?

  • रबारी का इतिहास क्या है?

  • देवासी जाति कौन सी होती है?

  • देवासी समाज की उत्पत्ति कैसे हुई?

रबारी जाति का परिचय

रबारी रायकृत सिंधु घाटी सभ्यता की देहाती प्राचीनतम खानाबदोश जातियों में से एक है। यह पश्चिम क्षेत्रीय जाति है। रबारी समाज के लोग निपर, साहिबा, छट भुज, बेबेर ईमामदार एवं कपदार कहे जाते हैं। इनका मुख्य व्यवसाय पशुपालन रहा है। यह उत्पादक जातियाँ हैं। यह मुख्यतः ऊँट के अलावा कालीमाटे में गाय, भेड़, बकरी एवं भैंस पालते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता के समय मुख्यतः सभी जातियों का खेती एवं पशुपालन ही रहा है। 19वीं शताब्दी के बाद लगभग जातीय व्यवस्था के विघटन एवं ब्रिटिश हुक़ूमत के समयकाल में 19वीं एवं 20वीं सदी में इन जातियों ने अपना मूल व्यवसाय छोड़ दिया।

रबारी, देसाई, देवासी, रायका, रेबारी, जेट जाति के नाम से भी पहचाना जाता है। यह जाति मुख्यतः उत्तर-पश्चिम में राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में निवास करती है। इसके अलावा पड़ोसी देश पाकिस्तान के सिंध प्रांत में भी रबारी समाज की निवास करती है। भारत में रबारी जाति जनसंख्या लगभग एक करोड़ के आसपास है। पाकिस्तान में भी इनकी संख्या लगभग आठ हजार के करीब है।

राजस्थान के जोधपुर संभाग में पाली (सिरोही, जालोर, बाड़मेर और गुड़ामालानी उपखंड, पाली, जैसलमेर, सांचौर) में रबारी समाज बहुत बड़ी संख्या में निवास करता है। हरियाणा राज्य के भिवानी (फतेहाबाद) कैथल और पंजाब में नाम, पटियाला, भिवंडी में रबारी समाज की बड़ी संख्या में निवास करता है। मध्यप्रदेश में उज्जैन और राजस्थान में उत्तरप्रदेश में रबारी समाज निवास करता है।

उत्पत्ति और इतिहास (Origin and history of Rabari community)

शोधकर्ताओं एवं इतिहासकारों का मानना है कि रबारी शब्द का उद्भव रहबर शब्द से हुआ है। रहबर एक फारसी शब्द है—जिसका मूल अर्थ है— पथप्रदर्शक, मार्गदर्शक, रास्ता दिखाने वाला होता है। रबारी समाज के लोग अपने पारंपरिक ज्ञान के कारण थल मार्गों में रास्ता बताने का कार्य भी करते थे। रबारी समाज को सेना में ऊँट सेवा देने के लिए जाना जाता है। सन् 1965 एवं 1971 के युद्ध में भारतीय सीमाओं पर पाकिस्तानी सेना के आक्रमणों को रोकने में ऊँट चालकों एवं मार्गदर्शकों की भूमिका निभाई। पाली जिले के ऐतिहासिक शौर्य गाथाओं एवं पठानों की पूरी जानकारी रबारी मार्गदर्शक होते हैं।


रबारी अपने पशुओं के चारे की तलाश में साल के आठ महीने तक एक प्रांत से दूसरे प्रांत में घूमते हैं। अधिकतर अवधि यह बंजारों की तरह बिताते हैं, इसलिए राहगीरों का अप्रयुक्त शब्द रबारी हो गया। राजपूत-युद्ध एवं रबारी की वीरगाथा में घनिष्ठ संबंध रहा है।

किवंदंती एवं दंतकथा

राव एवं चारण-भाट वंशावली के अनुसार एक किवंदंती प्रचलित है।

रबारी जाति के लोग अपने को मां पार्वती और भगवान शिव की संतान मानते हैं। उनका मानना है कि भगवान शिव और माँ पार्वती ने ऊँट जैसे की रक्षा/पालन करने के लिए समाज रचा। भगवान शिव और पार्वती जब कैलाश पर्वत पर थे, तो मां पार्वती ने एकान्तता में बोरियत (उकताहट) महसूस की। उन्होंने वहां पड़ी गीली मिट्टी की कुछ आकृति बनाना शुरू कर दिया, वह मिट्टी की आकृति ऊँट जैसी बनने लगी थी। माँ पार्वती ने इसे अनूठा अनुभव किया और बहुत प्रसन्न हुईं। तब भगवान शिव पास से गुज़रे और उनकी नजर माँ पार्वती द्वारा बनाई आकृति पर पड़ी। भगवान शिव ने – जो प्राणशक्ति (life energy) देने में सक्षम थे – उस आकृति में प्राण फूंक दिए। भगवान शिव ने अपनी भस्म (Ash) से ऊँट की आकृति में प्राण फूंकें जिससे धरती पर ऊँट अस्तित्व में आया।

ऊँट की देखभाल के लिए भगवान शिव ने अपने शरीर की जंघा (Thigh) से एक मानव आकृति को बनाया। इस मानव के हाथ को ऊँट के मुँह की तरह बनाया और उसकी नाक ऊँट की नाल जैसी बनाई गई। यह पहला मनुष्य समाज/समुदाय रबारी था। ऊँट की रक्षा होने के कारण उसका नामकरण शुरूवात में "राखबर" था, फिर भाषा/चलन अनुसार अपभ्रंश होते-होते "रबारी" कहा जाने लगा। आज भी रबारी समाज में समाज नाम का एक गोत्र है जिसे प्रथम गोत्र माना जाता है और पूज्य माना जाता है।


रबारी जाति के लोगों का मानना है कि भगवान शिव व मां पार्वती ने ऊँट समाज उस समय रचा जब ऊँट पैर होते थे। जिससे ऊँट को चलने-फिरने और दौड़ने में काफ़ी तकलीफों का सामना करना पड़ता था। एक दिन समाज रबारी ने ऊँट को कहा "भगवान शिव को बुलाओ", जिससे भगवान शिव प्रकट हुए और ऊँट की तकलीफ सुनकर बोले – "मैंने कैलाश पर्वत जिससे के ऊपर की ओर खींचा हुआ था, वह नीचे की तरफ गोल/ईर्ष/डिस्क जैसी आकृति बन गई।" वो ही गोल/डिस्क पैर आज भी ऊँट की निशानी है। माँ पार्वती व शिव की कृपा से ऊँट चलने फिरने और दौड़ने लगा।

भगवान शिव और पार्वती ने करवाई थी चामड़ की शादी

चामड़ रोजाना ऊँट चराने के लिए हिमालय के जंगल में जाता था, एक दिन उसकी नजर झील में नहा रही स्वर्ग की अप्सराओं/परियों पर पड़ी। संकोचवश उनके कपड़े उठाकर ऊँट पर रख लिए थे, इससे नाराज़ होकर अप्सराओं में से सामड़ रबारी को शिकारवश भगवान शिव-पार्वती के पास ले गई। मां पार्वती ने कपड़े लौटाए पर एक लड़की को अपने साथ अप्सरा बनाम रबारी से शादी करने को कहा, आगे अप्सरा तैयार हुई और भगवान शिव एवं पार्वती की मौजूदगी में सामड़ का विवाह अप्सरा से हुआ। यही रबारी समाज से शादी अप्सरा से होने के कारण आज भी रबारी संतानों की वंशावली में “परगाव” के नाम से जाना जाता है।

चामड़ रबारी और राव समुदाय और उनके पुत्रों को भगवान शिव ने अप्सर रूपी पत्नी (जो झील में नहा रही थी) के साथ विवाह की अनुमति दी। कहते हैं कि उसी दिन से रबारी समाज की स्त्रियाँ अपने घूंघट में एक खास डिजाइन का कपड़ा (ओढ़नी) पहनती हैं, जो अप्सरा को दर्शाता है। यह तंग समाज उस घटनाक्रम से इतना प्रभावित हुआ कि उन्होंने अपने समाज में विवाह को बहुत पवित्र और देवीय घटना मानकर स्थापित किया।

रबारी समाज आज भी इस परंपरा को बहुत गर्व और श्रद्धा से मानता है और सामड़ मेला एवं मृत्यु संस्कार में चामड़ को भगवान शिव के आदेश से अप्सरा से विवाह करवाने वाला पुरुष मानकर पूजा जाता है। आज भी रबारी समुदाय के लोग जेठानसर के पानी को पवित्र मानते हैं, वहीं रेवास और केतला को पवित्र देवी कहते हैं। इस कथा का जिक्र मैं किसी मेला/मेरे में करूंगा।


गुजरात प्रांत के रबारीयों के लिए माळधारी शब्द का इस्तेमाल भी करते हैं। माळ का अर्थ “ढोर या पशु” से है, धारी का अर्थ “धारण करने वाला या रखने वाला” होता है। माळधारी का प्रयोग उन जातियों जैसे, अहीर, रबारी, भरवाड़ आदि जातियों पर किया जाता है। माळधारी समुदाय में सबसे बड़ी विशेषता है इनकी पशुपालन संस्कृति और पशुओं के प्रति प्रेम।

रबारी समाज के लोग अपने देवी-देवताओं की पूजा आज भी पारंपरिक तरीकों से करते हैं। इनकी संस्कृति में प्रमुखता से जानवरों की बलि देना, विशिष्ट वेशभूषा पहनना, और देवी-देवताओं से जुड़ी गाथाओं को गाना बेहद संवेगपूर्ण कहा जाता है।

रबारी समाज के लोग अपनी पारंपरिक पोशाक, भाषा, लोक गीत, वाद्य, भजन, गाथाएं, रस्में, कहावतें, गैडी, घाघरा, ओढ़नी, कडो, चूड़ियां, मणकियां, आदि को अपनी सांस्कृतिक पहचान मानते हैं।

इनकी परंपराएं आज भी ग्रामीण इलाकों में प्रचलित हैं। रबारी समुदाय की पारंपरिक जीवन शैली, रीति-रिवाज, रहन-सहन, खान-पान, शादी-विवाह, संस्कृति में रात-दिन का अंतर नहीं है।