June 25, 2025
Bhinmal - Jalore (Raj)
Rabari Samaj Views

घुमंतू चरवाहों की गायों से सम्बन्धित समस्याएं एवं सुझाव

पश्चिमी राजस्थान में हम रैबारी (अर्थ घुमंतु जनजाति) बहुसंख्यक में रहते हैं। वस्तुतः हम मेसोपोटामिया की एक चरवाहा जनजाति है जो कि सदियों से अर्ध-घुमंतु और घुमंतु जीवन शैली में रहते आए हैं। भारतवर्ष में ऊंट को पालने वाला प्राणी केवल रैबारी जनजाति का ही है। हमारा जीवन लगभग पूर्ण रूप से पशुओं जैसे ऊंट, भेड़ और गाय चराना रहा है और अभी भी यही है। इस सन्दर्भ में यह उल्लेख करना उचित होगा कि जलवायु, सिंचाई, भूमि और चरागाह के घोर अभाव की स्थिति में यह जनजाति का ही एक वर्ग है, जिसने अपने जीवन की सभी आवश्यकताओं को पूर्ण (खाद्य, वस्त्र एवं क्रियाशील सम्पदा) किया है और अपने जीवन स्थल पर चारों ओर तूफान में निरंतर प्रवास (Migration) करता रहता है।

हमारे लोक की समस (सीजन) और घुमाव के आधार/फसलों के आधार पर तय होता है। इस समाज में हजारों वर्षों से एक परंपरा रही है जो आज भी गुजरात से राजस्थान होते हुए हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश तक चलती आ रही है। यह हजारों वर्षों पुरानी उत्तर परंपरा का हिस्सा है। यह जनजातीय प्रवृत्ति में पड़ाव डालना, बाड़-बंदी करना, अस्थाई झोपड़ियाँ बनाना, ऊंट, गाय, भेड़ आदि पालना और अन्न उपजाना यह सभी कुछ सामूहिक रूप से होता चला गया है। इसी प्रवृत्तिनुसार इस जनजाति की जीवन शैली में प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने जीविकोपार्जन को लेकर विशेष रूप से कुशल रहा है। इसका मुख्य साधन पशुपालन रहा है। जनजाति के लोग गाय की विविध नस्लों को पहचानते और उनकी उपयोगिता को समझते हैं। ऊंट (इंड) में तीन से अधिक ऊंटों की जातियों को पहचाना नहीं जाता है। इसके पश्चात भी समुदाय ऊंट (इंड) के विभिन्न नस्लों के भिन्न भिन्न विशेषताओं को समझता है और कई बार ऊंट (इंड) में तेज़ और थकन, सवारी के लायक है या नहीं, यह भी परखता है।

जनजाति की यह परंपरा कृषि आधारित संस्कृति से अलग एक विशेष रूप है। इसके जीवन का आधार पशु, सींगों का आकार, धनी का बनावट, खसखस, खुद के कपड़े की सिलाई, खुद्द और लटाट कांकी की स्थिति, खुद का आकार, थनी की बनावट, पैरों का बनावट, पगड़ी और साड़ी, जाकट, कुर्ती, सलेवा, सकरण/क्रा – सिलिंग पट्टु, चांदी की हथकड़ी, बालियों की बनावट, वन्य जातियों की गायों के प्रति स्त्री और भगवान भगवान, दूध पिलाई, “संध” नहीं है। रैबारी जनजाति के अलावा अन्य जनजाति का उल्लेख नहीं किया गया है, वह जो दूध न दे सके गाय नहीं पालन आदि आदि।

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हम भगवान पशुपतिनाथ महादेव के वंशों की पालतन में चरवाहा के तौर पर जीवन जी रहे हैं। हमने पशु को सेवा भावना के तौर पर देखा, उनकी बकरी से नहीं बांधा। पशुपालन हमारे परिवार के अंग हैं। अगल-बगल में कोई कारण पशुओं के रहने के स्थान के साथ ही हमारा निवास स्थान भी रहा करता है। निवास स्थान दोनों (हम और हमारे पशु) का साझा करता है। सदियों से दूध और मादा जनक जानवर आदर्श रहा है। विश्वविज्ञ के जो मानव के सबसे क़रीब जीवनशैली का रूप मानी जाती है, वहीं घुमंतु जीवन शैली हमारी विशेषता है और हम अपने पशुओं से अलग नहीं समाज। जिस घर में बच्चे का पालन होता है, उसी प्यार से पशुओं का भी हृदय से सजोज किया जाता है। भारत के अर्धशुष्क क्षेत्र में पशुपालन के संरक्षण में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हुए हम जीवन की एक पट्टन रूप प्रस्तुत करते हैं।

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